सा विद्या या विमुक्तये

सा विद्या या विमुक्तये
(साप्ताहिक पाठ)

विद्या किसे कहते हैं? इसकी परिभाषा करते हुए शास्त्रकारों ने सूत्र रूप में कह दिया है कि- ‘सा विद्या या विमुक्तये’ विद्या वह है कि जो मुक्ति प्रदान करे। जिसके द्वारा हम रोग, शोक, द्वेष, पाप, दीनता, दासता, गरीबी, बेकारी, अभाव, अज्ञान, दुर्गुण, कुसंस्कार आदि की दासता से मुक्ति प्राप्त कर सकें वह विद्या है। ऐसी विद्या को प्राप्त करने वाले विद्वान कहे जाते हैं।

प्राचीन समय में आज के जितने स्कूल कालेज न थे। पढ़ने वाले छात्रों को एक गधे के बोझ की बराबर पुस्तकें लादकर यों स्कूल न जाना पड़ता था। दिन-रात आवश्यक बातें रटाने की पद्धति की आज की शिक्षा प्रणाली का कहीं दर्शन भी न था। तो भी लोग विद्वान होते थे। उपयोगी शिक्षा और विद्या का इतना अधिक प्रचलन था कि हर ग्राम और नगर स्वतः एक कालेज था। वहाँ के निवासी अपने घर वालों, कुटुम्बियों और नगर निवासियों से ही बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त कर लेते थे। तोता रटंत की अपेक्षा जीवन की उपयोगी और आवश्यक शिक्षा क्रियात्मक रीति से प्राप्त की जाती थी। प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुभव द्वारा वे तथ्य शिक्षार्थियों को भली प्रकार हृदयंगम हो जाते थे।

मेघनाद, कुम्भकरण, अंगद, हनुमान, जामवंत से योद्धा, अर्जुन, भीम, भीष्म, द्रौण जैसे महारथी बी. ए. पास थे या मेट्रिक्युलेट थे इसका कुछ पता नहीं चलता। दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा, खगोल, भूगर्भ, प्राणिशास्त्र, रसायन, शिल्प, वास्तु, अर्थ, नीति, धर्म, अध्यात्म आदि विषयों के विशेषज्ञ घर-घर में होते थे। इन विषयों की वे क्रियात्मक जीवन में अनुभव पूर्ण शिक्षा प्राप्त करते थे और अपने विषय के सुयोग्य ज्ञाता बन जाते थे। पुरुष के समान स्त्रियाँ भी अपनी विद्वत्ता में शिक्षा में आगे बढ़ी-चढ़ी थीं। स्त्रियों के कालेज कहीं थे इसका पता इतिहास के पन्ने नहीं देते पर इतना जरूर बताते हैं कि आज की ‘कालेज गर्ल्स’ की अपेक्षा उस समय की ललनाएं हर दृष्टि से अधिक सुशिक्षित होती थीं।

कबीर, रैदास, दादू आदि संत शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े हुए कहे जा सकते हैं। वे साहित्य और व्याकरण के उतने विद्वान न थे तो भी आज के एल. टी. प्रोफेसरों की अपेक्षा उनकी विद्या वास्तविक थी। अकबर पढ़े-लिखे न थे, पंजाब केशरी महाराणा रणजीतसिंह की शिक्षा नहीं के बराबर थी, छत्रपति शिवाजी शिक्षित न थे पर जो कुछ उनने सीखा था वह आज के फटे हाल ग्रेजुएटों की अपेक्षा बहुत उपयोगी एवं वास्तविक था।

हम क्या पढ़ें? एवं बच्चों को क्या पढ़ावें? इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर शास्त्रकार इस प्रकार देते हैं कि जिस ज्ञान के आधार पर दुखदायी बन्धनों से छुटकारा प्राप्त किया जा सके वही विद्या है, उसे ही पढ़ो। रोग, शोक, द्वेष, पाप, दीनता, दासता, गरीबी, बेकारी, अभाव, अज्ञान, दुर्गुण, कुसंस्कार आदि के शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक बन्धनों से मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता-शक्ति जिस उपाय द्वारा मिले वहीं विद्या है उसे ही सीखना और सिखाना उचित है।

आज की शिक्षा उपरोक्त कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त बिल्कुल निकम्मी सिद्ध होती है। जीवन का एक तिहाई भाग स्कूल कालेजों के कैद खाने में व्यतीत करने के बाद हमारे बालक जब बाहर आते हैं तो वे उपरोक्त बंधनों से छूटना तो दूर उलटे जब स्कूल में प्रवेश हुए थे उसकी अपेक्षा भी अधिक जकड़े हुए निकलते हैं। शील, स्वास्थ्य, संयम, विवेक, विनय, श्रद्धा, उत्साह, वीरत्व, सेवा, सहयोग आदि विद्या द्वारा प्राप्त होने वाले स्वाभाविक फल जब उनमें दृष्टिगोचर नहीं होते तो फिर किस प्रकार कहा जा सकता है कि उन्होंने विद्या प्राप्त की है या वे विद्वान हो गये हैं।

अन्धानुकरण करके अपने बालकों के इस निरर्थक एवं हानिकर शिक्षा का भार लादकर उनके स्वास्थ्य और जीवन विकास से रोकना उचित नहीं। इतनी खर्चीली, इतनी श्रम साध्य शिक्षा जब विद्या से प्राप्त होने वाले सुफल की उपस्थित नहीं करती वरन् उलटे परिणाम उत्पन्न करती है-तो उसे अविद्या या कुशिक्षा ही कह सकते हैं। इस कुशिक्षा में बालकों के जीवन कि विकासोन्मुखी-प्रमुख भाग बर्बाद कर दिये जाने पर भविष्य में वे कोई महत्वपूर्ण कार्य कर सकेंगे इसकी संभावना बहुत कम रह जाती है। किशोरावस्था का पुष्प, तोता रटन्त में रात-रात भर जागकर जब मसल डाला जाय तो फिर उस पर उत्तम फल लगने की क्या आशा की जा सकती है?

उच्च शिक्षा के नाम पर प्रचलित वर्तमान अनुपयोगी शिक्षा से हमारा कुछ भी भला नहीं हो सकता। अब हमें ऐसी शिक्षा का निर्माण करना होगा जो क्लर्क बाबू ढालने की फैक्टरी न रह कर शिक्षार्थी के जीवन विकास में सर्वतोमुखी सहायता प्रदान करे। उस शिक्षा में अनावश्यक पुस्तकों का गर्दभ भार न रह कर अनुभवी क्रिया कुशल आचार्यों द्वारा जीवनोपयोगी व्यवहारिक शिक्षा देने की व्यवस्था होगी। वही शिक्षा हमारे बालकों को सफल योद्धा, व्यापारी, नेता, सेवक, शिल्पी वैज्ञानिक आदि बना सकेगी। उस धार्मिक आधार पर खड़े हुए शिक्षण से ही मनुष्यों के बीच सच्चे प्रेम और सद्भाव की स्थापना होगी और सुख शान्तिमय लोक परलोक का निर्माण होगा।

आइए, हम लोग ऐसी शिक्षा प्रणाली का निर्माण करें, उसके निर्माण की आज के अन्धकार युग में सर्वोपयोगी आवश्यकता है।



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